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    गजानन महाराज चालीसा

    अद्भुत कृतियाँ प्रकृति ग्रंथ में, अगणित वर्णित हैं जिनकी ।।

    कतिपय कृतियाँ चालीसा में, वर्णन करता मैं उनकी ।।१।।

    प्रभो गजानन शरण आपकी, अट़ट सेवा भक्ति मिले ।।
    सौंप दिया यह जीवन सारा, चरण शरण तव शक्ति मिले ।।२।।
    माघ महिना कृष्ण सप्तमी, शके अठारह सौ ही था ।।
    तारीख तेवीस फ़रवरी महीना, वर्ष अठारह अठोत्तर था ।।३।।

    प्रगटे थे शेगाँव गाँव में, अंत काल तक वहीं रहे ।।
    इसके पहले काशी में थे, दीक्षित सन्यासी रहे ।।४।।
    प्रथम बताया अन्न ब्रह्म है, पानी ईश्वर कहाँ नहीं ।।
    गणिगण कहते करवाते थे, राम भजन भी कहीं कहीं ।।५।।
    महाभागवत सुना संत मुख, तुंबे जल ने चकराया ।।
    जानराव जब मरण तोल थे, चरण तीर्थ से बच पाया ।।६।।
    चिलम जली जब बिना आग से, सुना अलौकिक गुण भारी ।।
    जन समूह तो अपार उमड़ा, दर्शन लेने सुख कारी ।।७।।
    इनकार किया जब सुनार ने, उसने वैसा फल पाया ।।
    कान्होला की करी माँग जब, माह पुराना भी आया ।।८।।
    मन्त्र उजागार हेतु अचानक, विप्र वेद पाठी आए ।।
    यही भी गुरु की महिमा ही थी, मानो स्वयं बुला लाए ।।9।।
    उठ बैठा जब मरा श्वान भी, शुष्क कूप में जल आया ।।
    आया जल भी अथाह उसमें, जन समूह बहु चकराया ।।१०।।
    भाग गया सारा जन समूह, स्वामीजी तो रहे अड़े ।।
    टूट पड़ी मधु मक्खियाँ काँटे, श्वास रोक से निकल पड़े ।।१२।।
    गर्व न आवे निज निज पथ में, अवश्य सिद्धि उसे मिलती ।।
    कमल पत्र सम जग में रहते, शांति संत को तब मिलती ।।१३।।
    भास्कर खंडु बड़े भक्त थे, सेवा स्वामी की करते ।।
    अन्य बंधु तो हँसी उड़ाते, हारे पर सतपथ धरते ।।१४।।
    खंडुजी को पुत्र नहीं था, गुरु प्रसाद से पुत्र हुआ ।।
    जेल कष्ट था खंडुजी को, गुरु कृपा से कुछ ना हुआ ।।१५।।
    स्वामीजी के मुख से निकली, वेद रुचाए घबराए ।।
    भुसुर भागे ऐसे भागे, निज ग़लती पर पछताये ।।१६।।
    गुरुजी क्या रामदास भी, बालकृष्ण को चकराया ।।
    बाद दिखाकर निज स्वरूप भी, समझ इस भक्तन पाया ।।१७।।
    रामदास को श्लोक श्रवण कर, गुरु गजानन के मुख से ।।
    कभी गजनान रामदास के, रूप दिखाए अंतर से ।।१८।।
    पुन: स्वप्न में समरथ आए, मेरा रूप गजानन है ।।
    कभी ना लाना मन में संशय, समरथ रूप गजानन है ।।१९।।
    बालापुर में एक गाय थी, सबको भी वह दुख देती ।।
    किसी तरह गुरुजी तक लाए, सबको छूने अब देती ।।२०।।
    इस आश्रम में रही हमेशा, संतति उसकी अब भी है ।।
    कृत्य अलौकिक योगीजी के, अमर सर्वदा अब भी है ।।२१।।
    पंडितजी के घोड़े की भी, छुडा दुष्टता भी दी थी ।।
    गुरु शरण में पंडित आए, चरण वंदना अति की थी ।।२२।।
    गुरुकृपा ने भास्कर जी को, प्राण छूटते मोक्ष दिया ।।
    अन्न दान भी स्वयं गुरु ने, भूखों को भरपेट दिया ।।२३।।
    याद किया जब गणु भक्त ने, रक्षा कर उपदेश दिया ।।
    बच्चु गुरु को वस्त्राभूषण, देते गुरु ने नहीं लिया ।।२४।।
    छोड गये सब वस्त्राभूषण, हमको इससे लाभ नहीं ।।
    हम तो केवल भक्ति चाहते, धन दौलत का काम नहीं।।२५।।
    बंडु तात्या विप्र नाम का, क़र्ज भार से घबराया ।।
    आत्महत्या करना सोचा, गुरु ने तब धन बतलाया ।।२६।।
    उसी द्रवय् से क़र्ज मुक्त हो, गुरु से सच्चा ज्ञान लिया ।।
    अनेक लीला बंकट के घर, करके सच्चा ज्ञान दिया ।।२७।।
    बीच नर्मदा नाव गयी जब, बड़े छेद से जल आया ।।
    मातु नर्मदा इन्हे देखकर, स्वयं दिखाईृ निज माया ।।२८।।
    सबको धीरज दिया संत ने, और कहा रेबा चतुराई ।।
    जहाँ संत है वहाँ पुण्य है, पुण्य ना होता दुख दाई ।।२९।।
    रोटी त्र्यंबक भाऊ भक्त की, बड़े प्रेम से खाई थी ।।
    इस भोजन की करी प्रतीक्षा, गुरुजी को जो भाई थी ।।३०।।
    तुकाराम के सिर से छर्‍रा, उसको बेहद पीड़ा थी ।।
    गुरुकृपा से गिरा कान से, हटी पुरानी पीड़ा थी ।।३१।।
    सुना गया है रेल भ्रमण में, हठ योगी तहे कहलाए ।।
    तिलक सभा में सभापति थे, राज योगी भी कहलाए ।।३२।।
    आम्र पेड़ प गुरुजी ने तो, बिना ऋतु फल बतलाया ।।
    गुरु कृपा से पीताम्बर ने, वृक्ष हरा कर दिखलाया ।।३३।।
    कोंडोली में यही वृक्ष भी, आज अधिक कल देता है ।।
    कुछ ना असंभव गुरु कृपा से, आशीष गुरु की लेता है ।।३४।।
    पहुँचे जीवन मुक्त स्थिति में, शरीर का कुछ भान नहीं ।।
    चरित्र उनके बड़े अलौलिक, भोजन का भी ध्यान नहीं ।।३५।।
    भादव महीना शुक्ल पंचमी, शके अठारह बत्तीस था ।।
    गुरुवार था देह त्याग का, सन् भी उन्नीस सौ दस था ।।३६।।
    अस्तित्व हमारा यहीं रहेगा, भले देह से छुटकारा ।।
    समाधी अंदर देह रहेगा, बाहर आतम उजियारा ।।३७।।
    योगी ही थे गुरु गजानन, अब भी वे दर्शन देते ।।
    समाधी का जो दर्शन करते, उनकी अब भी सुधि लेते ।।३८।।
    बनी हुई शेगाँव गाँव में, समाधी जो सब ताप हारे ।।
    दर्शन करने जो भी जाते, उन सबके दुख हरण हारे ।।३९।।
    जगह जगह पर गुरु गजानन, मंदिर बनते जाते हैं ।।
    नित्य नियम जो दर्शन करते, सातों सुख वे पाते हैं ।।४०।।
    कृत्य अलौलिक योगीजी के, नत मस्तक स्वीकार करो ।।
    शीश झुका है गुरु चरणों में, मम प्रणाम स्वीकार करो ।।
    दोहा
    श्रवण करे या नित पढ़े, गुरु की महिमा कोए
    उसकी पूण कामना, जो भी मन में होये.
    अनंतकोटि ब्रह्मांडनायक महाराजधिराज योगीराज परब्रह्म सच्चिदानंद भक्तप्रतिपालक शेगावनिवासी समर्थ सद्गुरु श्री गजानन महाराज की जय ।।​

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